बुधवार, 26 जुलाई 2023

आलेख

 


मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली

डॉ. अशोक गिरि

प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को बहुमुखी प्रतिभा का धनी बनाना था। उसे भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आत्मज्ञानी भी बनाना था। साथ ही उस समय जो शिक्षा दी जाती थी वह व्यक्ति को आत्मनिर्भर, चिन्तक एवं सत्यमार्गी बनाती थी। हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति का उद्देश्य विद्यार्थी को मुक्ति के मार्ग से परिचित कराना था। वेदों में कहा गया है- “सा विद्या या विमुक्तये।” अर्थात विद्या मुक्ति का मार्ग है। हम सभी जानते हैं, कि प्राचीन भारत में गुरुकुलों द्वारा शिक्षा दी जाती थी वहाँ विद्याधन ही प्रमुख था। ना किसी तरह के दिखावे की आवश्यकता थी और ना ही फीस ली जाती थी। हाँ, यह अवश्य है कि गुरुकुलों को राजाओं की ओर से अनुदान मिला करता था। लेकिन वे गुरुकुल या पाठशला बड़ी-बड़ी खूबसूरत इमारतें नहीं थीं। प्रयास किया जाता था, कि प्रकृति की गोद में रहकर विद्यार्थी विद्याध्ययन करें। इस प्रकार भारतीय शिक्षा पद्धति की नींव बहुत मजबूत थी। बड़े-बड़े ऋषि व ज्ञानी उसी वातावरण में स्वयं चिन्तन मनन करते थे तथा विद्यार्थियों को विद्यादान दिया करते थे।

तक्षशिला विश्वविद्यालय उस समय विश्व विख्यात विश्वविद्यालय था, जहाँ अपने ही देश के नहीं दूसरे देशों के भी विद्यार्थी विद्यार्जन के लिए आते थे। उस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के कुछ विशिष्ट नियम थे। विश्वविद्यालय के प्रमुख द्वारा पर बड़े-बड़े विद्वान शिक्षक एवं आचार्य खड़े रहते थे और प्रवेश के लिए आने वाले विद्यार्थी की मौखिक परीक्षा लेते थे। उस परीक्षा में जो विद्यार्थी सफल होते थे, उन्हें ही प्रवेश मिलता था। अन्दर पहुँचकर विद्यार्थियों को पुनः परीक्षा देनी पड़ती थी और उस परीक्षा में सफल होने पर विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलता था। इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरकर जो विद्यार्थी प्रवेश पाते थे; उनके सामने विद्याध्ययन का ही लक्ष्य होता था । विश्वविद्यालय में उन्हें महान ग्रन्थों के अध्ययन के साथ-साथ चिन्तन मनन की एवं सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी। इस प्रकार विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास होता था ।

दाशर्निक हरबट के शब्दों में – अध्यापन का अर्थ ‘मन की रचना है’ वह व्यक्ति में एक आन्तरिक स्वतन्त्रता स्वीकार करता है, जिससे वह अपने कार्यों की अच्छाई-बुराई का निर्णय करता है। प्रत्येक व्यक्ति में यह आन्तरिक स्वतन्त्रता तभी पैदा होती है जबकि उसमें चार बातें विद्यमान हों – इच्छा शक्ति की श्रेष्ठता, सद्भावना, समवृत्ति तथा न्यायप्रियता। हरबार्ट ने शिक्षण का मुख्य अभिप्राय सौन्दर्य भावना का विकास करना माना है। उसके विचार में शिक्षा का उद्देश्य नैतिक और धार्मिक आचरण की व्यवस्था करना है।

यदि अध्यापक को अपनी शिक्षा की सफलता का मूल्यांकन करना है, तो उसे देखना चाहिए, कि उसके छात्रों में किस सीमा तक चरित्र का विकास हुआ है। इसके अतिरिक्त, उसे अपनी योजना सदैव तैयार रखनी चाहिए। इससे उसमें दृढ़ता और आत्म विश्वास रहता है और उसे किसी भी प्रकार की घबराहट का सामना नहीं करना पड़ता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर हरबर्ट ने जिस शिक्षा पद्धति का निर्माण किया उसके चार स्तम्भ हैं रूचि, पूर्वानुवर्ती ज्ञान, सामान्य विधि तथा समन्वय।  इसे ध्यान में रखते हुए हरबर्ट ने अध्यापन के चार पद बनाएँ, जिनके नाम इस प्रकार हैं स्पष्टता – सत्यों का स्पष्ट प्रस्तुतीकरण, सहयोग सत्यों की एकता, व्यवस्था सत्यों का तार्किक सुनियोजन तथा - व्यावहारिक प्रयोग।

आगे चलकर उसके शिष्यों एवं अनुयायियों ने इन पदों में संशोधन किया और उनकी संख्या बढ़ाकर पाँच कर दी। फिर वही हरबर्ट के पाँच औपचारिक पद कहलाए या जिसे पंच पदीय शिक्षा प्रणाली कहते हैं । उन पाँच पदों के नाम इस प्रकार हैं - प्रस्तावना या पाठ की तैयारी, विषय-प्रवेश या प्रस्तुतीकरण, तुलना, सम्बन्ध या स्पष्टीकरण, निष्कर्ष या नियमीकरण, प्रयोग या अभ्यास।

अब हम बात करते हैं - शिक्षा मूल्य और उसके महत्व की ..... ।

मूल्य शिक्षा क्या है? इसके क्या लाभ हैं? 21वीं सदी में मूल्य शिक्षा का महत्व और आवश्यकता, मूल्य शिक्षा के उद्देश्यख मूल्य शिक्षा में शिक्षक की भूमिका, जीवन मूल्य शिक्षा का महत्व, मूल्य शिक्षा के कुछ सिद्धान्त, मूल्य शिक्षा की विशेषताएँ, पाठ्यक्रम में मूल्य शिक्षा का महत्व, मूल्य शिक्षा का महत्व पर प्रकाश डालेंगे।

मूल्य शिक्षा व्यक्तियों के व्यक्तित्व विकास पर जोर देती है ताकि उनका भविष्य सँवर सके और कठिन परिस्थितियों से आसानी से निपटा जा सके। यह बच्चों को ढालता है, ताकि वे अपने सामाजिक, नैतिक और लोकतान्त्रिक कर्त्तव्यों को कुशलतापूर्वक संभालते हुए बदलते वातावरण से जुड़ जाए।

मूल्य शिक्षा का महत्व शारीरिक और भावनात्मक पहलुओं को विकसित करता है। यह आपको ढंग सिखाता है और भाईचारे की भावना विकसित करता है। यह देशभक्ति की भावना पैदा करता है। मूल्य शिक्षा का महत्व धार्मिक सहिष्णुता को भी विकसित करता है।

यह जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने और सफल होने के लिए आवश्यक किरदारों को विकसित करने में मदद करता है। यह आपके व्यक्तित्व को आकार देता है। आपको जीवन और उसके संघर्षों के प्रति विनम्र और आशावादी बनाता है। आपको हर स्थिति में सही और सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर आकार देता है और आने वाली चुनौतियों और प्रतिस्पर्धाओं के लिए आपको मजबूत बनाता है।  यह छात्रों को उनके जीवन के उद्देश्य को जानने में मदद करता है और उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए सही रास्ता चुनने में मदद करता है। यह छात्रों को दूसरों के प्रति अधिक जिम्मेदार और समझदार बनाता है। वे मनुष्य के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरों की स्थितियों को समझने और उनके प्रति अधिक संवेदनशील बनने में सक्षम होते हैं। यह आने वाली चुनौतियों और प्रतियोगिताओं के लिए आपको मजबूत करता है। यह चरित्र का निर्माण करता है, जो छात्रों को सफलता और आध्यात्मिक विकास की दिशा में मूल्यांकन करेगा।

मूल्य शिक्षा को एक अलग अनुशासन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन शिक्षा प्रणाली के अन्दर सम्मलित होना चाहिए। केवल समस्याओं को हल करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए, इसके पीछे के स्पष्ट कारण और उद्देश्य के बारे में भी सोचा जाना चाहिए।

मूल्य शिक्षा का महत्व कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में सहायक होता है। जिससे निर्णय लेने की क्षमता में सुधार होता है। उम्र के साथ जिम्मेदारियों की एक विस्तृत शृंखला आती है। यह कई बार अर्थहीनता की भावना को विकसित कर सकता है और मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी विकारों, मध्य करियर संकट और किसी के जीवन के साथ बढ़ते असन्तोष को जन्म दे सकता है। मूल्य शिक्षा का उद्देश्य लोगों के जीवन का विकास करना है। मूल्य शिक्षा का महत्व जिज्ञासा जगाने और मूल्यों और हितों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। यह आगे कौशल विकास में मदद करता है। इसके अलावा, जब लोग समाज और उनके जीवन मूल्य शिक्षा का महत्व का अध्ययन करते हैं, तो वे अपने लक्ष्यों और जुनून के प्रति अधिक उत्साहित और बँधे हुए होते हैं। इससे जागरुकता का विकास होता है, जिसके परिणामस्वरूप विचारशील और पूर्ण निर्णय लेते हैं।

आज विश्व मूल्य शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। हमारे लिए जानना आवश्यक हो जाता है, कि मूल्य शिक्षा एक बच्चे की स्कूली यात्रा में सम्मलित है और उसके बाद भी यह सुनिश्चित करने के लिए, कि वे नैतिक मूल्यों के साथ-साथ नतिकता को भी आत्मसात करे मूल्य शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य है ।

शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक पहलुओं के सन्दर्भ में बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिए एक सभी दृष्टिकोण सुनिश्चित करना । देशभक्ति की भावना के साथ-साथ एक अच्छे नागरिक के मूल्यों को सामाजिक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भाईचारे के महत्व को समझने में वृद्धि। छात्रों को मदद करना। अच्छे शिष्टाचार, उत्तरदायित्वों और सहकारिता का विकास करना। रूढ़िवादी विवरण की ओर जिज्ञासा और जिज्ञासा की भावना को बढ़ावा देना।

     नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर निर्णय लेने के तरीके के बारे में छात्रों को सीखाना।  सोच और जीवन के लोकतान्त्रिक तरीके को बढ़ावा देना।  सहनशीलता और विभिन्न संस्कृतियों और धार्मिक विश्वासों के प्रति सम्मान के महत्व के साथ छात्रों को लागू करना ।

मूल्य शिक्षा में शिक्षक की भूमिका माता-पिता के बाद गुरु को ही सबसे ऊपर माना गया है। गुरु अर्थात शिक्षक उस कुम्हार के समान है, जो मिट्टी रूपी विद्यार्थी को एक बरतन का आकार देकर एक योग्य व उपयोगी पात्र बना देता है। गुरु किसी भी छात्र को ऐसी शिक्षा देकर एक बेहतर मनुष्य बना देता है। एक शिक्षक ही विद्यार्थी को समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्वों से रूबरू कराता है। एक शिक्षक का सबसे मुख्य काम यह है कि वह अपने विद्यार्थी को वर्तमान और भविष्य को ध्यान में रखकर शिक्षा दें। शिक्षा में परम्परा और नवीनता का मिश्रण होना चाहिए। वे विद्यार्थी को केवल किताबी ज्ञान तक ही सीमित न रखे, बल्कि उसे जीवन के व्यावहारिक ज्ञान की भी शिक्षा दे। विद्यार्थी तो एक गीली मिट्टी से समान होता है शिक्षक उसे जैसा ढालेगा, वैसा ही ढल जाएगा। यहाँ पर शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। नैतिक मूल्यों की जो शिक्षा वो विद्यार्थी को देगा उसका प्रभाव विद्यार्थी पर जीवन पर्यन्त बना रहेगा। यहीं से उसके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होगी। अतः नैतिक मूल्यों के उत्थान में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जीवन में मूल्य शिक्षा का महत्व हमारे जीवन में मूल्य शिक्षा का बहुत महत्व है। मूल्य शिक्षा के माध्यम से हम व्यक्ति समाज में सकारात्मक मूल्यों के क्षमताओं और अन्य प्रकार के व्यवहार को विकसित करता है, जिसमें वह रहता है। मूल्य शिक्षा का अर्थ है, दैनिक जीवन में कौशल, व्यक्तित्व के सभी दौरों को समझना। इसके माध्यम से छात्र जिम्मेदारी, अच्छी या बुरी दिशा में जीवन का महत्व, लोकतान्त्रिक तरीके से जीवन यापन, संस्कृति की समझ, महत्वपूर्ण सोच आदि को समझ सकते हैं। मूल्य शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अधिक नैतिक और लोकतांत्रिक समाज बनाना है।

यदि शिक्षा का अर्थ निकालना, ग्रहण करना या अर्जित करना है, तो मूल्याधारित शिक्षा का अर्थ होगा जो मूल्य यानी कि सार या महत्व है, उसको निकालना या अर्जित करना। शिक्षा में व्यक्ति, समाज तथा राज्य के अनिवार्य तत्वों को सम्मलित किए जाने की आवश्यकता रहती है। तब ही वह समग्र तथा पूर्ण शिक्षा हो पाती है। वास्तव में शिक्षा व्यक्तित्व तथा चरित्र निर्माण का सर्वाधिक सशक्त साधन है।

मूल्य शिक्षा से छात्रों में सहयोग, समानता, साहस, प्रेम एवं करुणा, बन्धुत्व, श्रम – गरिमा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विभेदीकरण करने की क्षमता आदि गुणों का विकास होता है। मूल्य शिक्षा छात्रों को एक उत्तरदायी नागरिक बनने के लिए प्रशिक्षित करती है। मूल्यों के सम्बन्ध में तीसरा तथ्य यह है कि ये समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं। मूल्य समाज के अनेक विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त, नैतिक नियम और व्यवहार के मानदण्ड होते हैं, व्यक्ति इनमें से कुछ को अधिक महत्व देता है और कुछ को अपेक्षाकृत कम वह जिन्हें जितना ज्यादा महत्व देता है, वह उसके लिए उतने ही अधिक शक्तिशाली मूल्य होते हैं। मूल्य व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित एवं दिशा निर्देशित करते हैं।

स्कूल पाठ्यक्रम में मूल्य शिक्षा का महत्व एवं मूल्य शिक्षा की आवश्यकता और महत्वपूर्ण है क्योंकि यह छात्रों को बुनियादी नैतिकताएँ सीखने में मदद करता है, जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने के साथ-साथ मानव बनने के लिए आवश्यक है।

मूल्य शिक्षा उनके भविष्य को आकार देने और जीवन में उनके सही उद्देश्य को खोजने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। चूँकि स्कूल हर बच्चे के सीखने की नींव रखता है, इसलिए स्कूल पाठ्यक्रम में मूल्य आधारित शिक्षा को जोड़ने से उन्हें अपनी शैक्षणिक यात्रा की शुरुआत से सबसे महत्वपूर्ण मूल्यों को सीखने में मदद मिल सकती है। स्कूल में एक अनुशासन के रूप में मूल्य शिक्षा भी उच्च स्तर के लिए अवधारणाओं, सूत्रों और सिद्धान्तों को रटने के बजाय मानवीय मूल्यों को सीखने पर अधिक केन्द्रित हो सकती है। इस प्रकार, मूल्य शिक्षा में कहानी का उपयोग करना भी छात्रों को मानवीय मूल्यों की अनिवार्यता सीखने में मदद कर सकता है। शिक्षा निश्चित रूप से अधूरी होगी, यदि इसमें के शिक्षा मूल्य के महत्व के अध्ययन को सम्मलित नहीं किया गया है, जो हर बच्चे को अधिक दयालु और सशक्त व्यक्ति बनने में मदद कर सकता है और इस तरह हर बच्चे में भावनात्मक बुद्धिमत्ता का पोषण कर सकता है ।

मूल्य शिक्षा बच्चों के सम्पूर्ण विकास में योगदान देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन है। हमारे बच्चों में मूल्यों को एम्बेड किए बिना, हम उन्हें अच्छी नैतिकता के बारे में नहीं सिखा पाएंगे, क्या सही है और क्या गलत है साथ ही दयालुता, सहानुभूति और करूणा जैसे प्रमुख लक्षण भी Importance of Value Education में है। प्रौद्योगिकी की उपस्थिति और इसके हानिकारक उपयोग के कारण 21वीं सदी में मूल्य शिक्षा की आवश्यकता और महत्व कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों को आवश्यक मानवीय मूल्यों के बारे में पढ़ाने से, हम उन्हें सर्वोत्तम डिजिटल कौशल से घटाया जा सकता है और उन्हें नैतिक व्यवहार और करुणा के महत्व को समझने में मदद कर सकते हैं। मूल्य शिक्षा छात्रों को जीवन के बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करती है और उन्हें एक अच्छा इन्सान बनने के लिए प्रेरित करती है, उन लोगों की मदद करती है, उनके समुदाय का सम्मान करने के साथ-साथ अधिक उत्तरदायी और समझदार बनाती है।

मूल्य शिक्षा के प्रकार प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक विभिन्न स्तरों पर मूल्य शिक्षा को कैसे सम्मलित किया गया है, इसका पता लगाने के लिए हमने कुछ महत्वपूर्ण चरणों और मूल्य शिक्षा के प्रकारों के बारे में बताया है, जो एक छात्र के सम्पूर्ण विकास को सुनिश्चित करने के लिए इसे सम्मलित करना चाहिए। प्रारम्भिक आयु नैतिक और मूल्य शिक्षा भारत सहित दुनिया भर में मध्य और उच्च विद्यालय के पाठ्यक्रम में नैतिक विज्ञान व मूल्य शिक्षा का एक पाठ्यक्रम है।  हाँलाकि ये पाठ्यक्रम है।  हाँलाकि ये पाठ्यक्रम शायद ही कभी जीवन में मूल्यों के विकास और महत्व पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, बल्कि नैतिकता और स्वीकार्य व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। प्रारम्भिक बचपन की शिक्षा के स्तर पर मूल्य शिक्षा के कुछ प्रकार को सम्मलित करना रचनात्मक हो सकता है।  युवा कॉलेज के छात्र (प्रथम या द्वितीय वर्ष के स्नातक) कुछ विश्वविद्यालयो ने पाठ्यक्रम सम्मलित करने या आवधिक कार्यशालाओं का आयोजन करने का प्रयास किया है। उनके करियर के लक्ष्य क्या हैं और दूसरों और पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के बारे में पुनर्विचार करने वाले छात्रों के सन्दर्भ में सफलता का उत्साहजनक स्तर रहा है। वयस्कों क लिए कार्यशालाएँ चिन्ताजनक रूप से, जो लोग अपने पेशेवर करियर में केवल 4 से 5 साल तक रहे हैं, वे नौकरी की थकावट, असन्तोष और निराशा के लक्षण दिखाना शुरु करते हैंवयस्कों के लिए मूल्य शिक्षा का महत्व तेजी से बढ़ा है। कई गैर -सरकारी फाउण्डेशनों ने स्थानीय कार्यशालाओं का संचालन करना शुरु कर दिया है, ताकि व्यक्ति अपने मुद्दों से निपट सकें और इस तरह के सवालों का बेहतर तरीके से प्रबन्धन कर सकें। छात्र विनिमय कार्यक्रम यह छात्रों के बीच सम्बन्धों की भावना पैदा करने का एक और तरीका है। न केवल छात्र विनिमय कार्यक्रम संस्कृतियों की एक सारणी का पता लगाने में मदद करते हैं, बल्कि देशों की शिक्षा प्रणाली को समझने में भी मदद करते हैं। सह पाठ्यक्रम गतिविधियाँ स्कूल में सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों के माध्यम से मूल्यपरक शिक्षा प्रदान करना बच्चों में शारीरिक, मानसिक और अनुशासनात्मक मूल्यों को बढ़ाता है। इसके अलावा, कठपुतली, संगीत और रचनात्मक लेखन भी पूरे विकास में सहायता करते हैं शिक्षण मूल्यों की अवधारणा पर सदियों से बहस होती रही है असहमति इस बात पर हुई, कि मूल्य शिक्षा को आवश्यकता के कारण स्पष्ट रूप से पढ़ाया जाना चाहिए या क्या इसे शिक्षण प्रक्रिया में निहित किया जाना चाहिए। ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कक्षाएँ या पाठ्यक्रम शिक्षण मूल्यों में सफल नहीं हो सकते हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से शिक्षा के मूल्य को सिखा सकते हैं। यह छात्रों को उनके आन्तरिक जुनून और रूचियों की खोज कर सकते हैं।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि यदि हम मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली को अपनाएँगे तो केवल विद्यार्थी का ही सर्वांगीण विकास, अपितु परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व में धनात्मकता का वातावरण बनेगा। और इसके लिए काम करना क्यों महत्वपूर्ण है। इस वर्ग / पाठ्यक्रम का स्थान, यदि एक होना है, तो अभी भी भयंकर बहस चल रही है।

मूल्य शिक्षा क्या है? मूल्य शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति क्षमताओं, दृष्टिकोण मूल्य के साथ-साथ उस समाज के आधार पर सकारात्मक मूल्यों के व्यवहार के अन्य रूपों को विकसित करता है ।

मूल्य शिक्षा क्यों महत्वपूर्ण है? शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक पहलुओं में अपने व्यक्तित्व विकास के लिए दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए मूल्य शिक्षा आवश्यक है। यह छात्रों को उनके भविष्य को आकार देने के लिए एक सकारात्मक दिशा प्रदान करता है, जिससे उन्हें अधिक जिम्मेदार और समझदार बनने और अपने जीवन के उद्देश्य को समझने में मदद मिलती है।

मूल्यों का महत्व क्या है? मान अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि वे हमें विकसित होने और हमारी मान्यताओं, दृष्टिकोण और व्यवहार को विकसित करने और मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं। हमारे मूल्य हमारे निर्णय लेने में परिलक्षित होते हैं और हमें जीवन में अपना वास्तविक उद्देश्य खोजने में मदद करते हैं और एक जिम्मेदार और विकसित व्यक्ति बन जाते हैं।

योजना शिक्षण विधि –

प्रोजेक्ट प्रणाली के प्रवर्तन का श्रेय विश्वविख्यात शिक्षाशास्त्री प्रो० जॉन डीवी को है। जॉन शिकागो तथा कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। शिक्षा जगत में अपने प्रयोग के आधार पर उन्होंने इस प्रणाली को जन्म दिया और अनेक सहयोगी एवं शिष्य प्रो० किल्पैट्रिक ने अपने प्रयोग द्वारा उसे और अधिक स्पष्ट कर दिया। इसी कारण अनेक विद्वानों ने प्रोजेक्ट प्रणाली के जन्म का श्रेय किल्पैट्रिक ने इस प्रणाली को इसलिए अपनाया कि उसके अनुसार तत्कालीन शिक्षण-पद्धतियाँ नीरस थी । बालकों को जो शिक्षा प्रदान की जाती थी, उसका दैनिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं था शिक्षा में बालकों की रूचियों प्रवृत्तियों आवश्यकताओं आदि पर यदि ध्यान नहीं दिया जाता था और शिक्षा में सामाजिक दृष्टिकोण की अपेक्षा की जाती थी। इसी कारण एक नई शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता का अनुभव किया गया और प्रोजेक्ट योजना प्रणाली का जन्म हुआ ।

डाल्टन पद्धति का अर्थ – डाल्टन पद्धति एक प्रकार का प्रयोगशाला प्रमुख हैं. - जिसमें बालकों को उनकी रूचि और इच्छा को ध्यान में रखते हुए एक सप्ताह या एक महीने तक कार्य करने को दिया जाता है। बालक इस कार्य को विभिन्न प्रयोगशालाओं द्वारा पूरा करने का प्रयास करते हैं। इस पद्धति में समय का बन्धन नहीं रखा जाता और बालकों को शिक्षक की राय जानने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। जो बालक अपना कार्य जल्दी समाप्त कर लेते हैं, उन्हें दूसरा कार्य दे दिया जाता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि डाल्टन पद्धति का अर्थ उस शिक्षण पद्धति से है, जिसमें बालकों को उनकी रूचियों एवं इच्छाओं के अनुसार प्रयोगशालाओं में दिए हुए कार्य को पूरा करने की पूर्ण सुविधाएँ प्रदान की जाती है। कुमारी पार्कहर्स्ट ने डाल्टन पद्धति की परिभाषा देते हुए कहा है डाल्टन पद्धति एक यान्त्रिक व्यवस्था है जिसमें कि वैयक्तिक कार्य के सिद्धान्त को व्यवहार में लाया जाता है। यह शिक्षालयों का सरल एवं आर्थिक पुनः संगठन है जहाँ शिक्षक एवं विद्यार्थी को अधिक उपयोगी समय से कार्य करने के लिए अवसर प्राप्त होते हैं।

मॉण्टेसरी पद्धति पूर्ण मनोवैज्ञानिक विधि है। इस विधि का प्रमुख उद्देश्य बालकों के चरित्र का विकास करना, उन्हें जीवन की परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति देना एवं बालकों की क्रियात्मक शक्तियों को उन्हीं के हाथों तथा क्रियाओं द्वारा शिक्षण देना है। मॉण्टेसरी का विश्वास था कि यदि बालकों को उपयुक्त वातावरण में रखकर उनकी मानसिक शक्तियों का उचित निर्देशन दिया जाए, तो बहुमुखी विकास हो जाता है मैडम माण्टेसरी का कहना है कि बालक एक शरीर है जो बढ़ता है एक आत्मा है, जो विकसित होती है। Child is a body which grows and a soul, which develops.

ह्यूरिस्टिक शिक्षा प्रणाली ह्यूरिस्टिक शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के ह्यूरिस्को शब्द से हुई यूरिस्टिक का अर्थ है मैं खोजता हूँ। इस तरह ह्यूरिस्टिक विधि वह विधि है जिसमें बालक स्वयं खोजते ढूंढते हैं और इस तरह वस्तुओं की स्थितियों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करते हैं। परम्परागत शिक्षण में बालक जो कुछ भी सीखते हैं वे शिक्षक की बात सुनकर सीखते हैं उनका कार्य ज्ञान लेना भर रहता है। यूरिस्टिक विधि ज्ञान की खोज की विधि कहलाती है, ज्ञान देने लेने की विधि नहीं होती। यूरिस्टिक विधि के व्यवहार में सबसे पहले कार्य करते हैं, इसका यह अर्थ नहीं है कि इस पद्धति में अध्यापक का कोई महत्व नहीं होता, वस्तुतः इस पद्धति में अध्यापक का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वह बालक की सहायता और मार्गदर्शन करता है। यूरिस्टिक पद्धति का प्रयोग करने वाले अध्यापक में स्वाध्यायशीलता और परीक्षणप्रियता होनी चाहिए। उसे बालकों उनकी रूवि और क्षमता के अनुसार समस्या देनी चाहिए. कक्षा में स्वतन्त्रता का वातावरण बनाए रखने के लिए उसे सदैव प्रयास करना चाहिए यूरिस्टिक पद्धति में अध्यापक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बालक को कम से कम बातें बताई जाए और वह स्वयं ही समस्त कार्य करे।

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली –

1. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली जिन आधारों पर विकसित हो रही है, उसके मूल सिद्धान्त संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं।

2. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की अवधारणा यह है कि वांछित स्तर तक, जाति, धर्म, क्षेत्र तथा लिंग के भेदभाव के बिना शिक्षा के अवसर समान रूप से प्रदान किए जाने चाहिए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त धन के साथ कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये जायेंगे। वर्ष 1986 की नीति में प्रस्तावित सामान्य शिक्षा प्रणाली को अपनाने के लिए प्रभावशाली कदम उठाने होंगे

3. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली सामान्य शैक्षिक संरचना पर विचार करती है। देश के सभी भागों में 10+2+3 प्रणाली को स्वीकार कर लिया गया है। 10 वर्षीय व्यवस्था के पुनर्विभाजन 5 वर्षीय आरम्भिक 3 वर्षीय प्राइमरी एवं 2 वर्षीय हाईस्कूल के प्रयास चल रहे हैं।

4. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का आधार एक सामान्य पाठ्यक्रम की संरचना है जिसमें सामान्य मूल विषयों के साथ-साथ अन्य विषय लचीले होंगे। सामान्य मूल विषयों में भारतीय स्वाधीनता का इतिहास, संवैधानिक प्रतिबन्ध तथा राष्ट्रीय एकता के अन्य तत्व होंगे। ये तत्व विषय क्षेत्रों से पृथक होंगे और इस प्रकार बनाये जायेंगे, जिससे भारत की सामान्य सांस्कृतिक विरासत, समतावाद, जनतन्त्र, धर्म निर्पेक्षता के मूल्यों का विकास लिंगभेद के बिना होगा। वातावरण की रक्षा, सामाजिक बुराइयों को दूर करना, छोटे परिवार के मानकों का निर्माण तथा वैज्ञानिक स्वभाव विकसित हो। सभी प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रम इस प्रकार बनाये जायेंगे जो धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों को पूरी निष्ठा के साथ विकसित करेंगे।

5. भारत ने विश्व को एक परिवार माना है और इसी आधार पर राष्ट्रों के मध्य शान्ति एवं अवबोध बनाये रखने की आवश्यकता अनुभव की है। इस पुरातन परम्परा का निर्वाह करने के लिए इस विश्व मत को सशक्त बनाने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को नई पीढ़ी में अभिप्रेरित करें । इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।

6. समानता के विकास के लिए समानता के अधिकतम अवसर प्रदान करने के साथ उसमें सफलता प्राप्त करना भी आवश्यक है। आधारभूत पाठ्यक्रम के माध्यम से आन्तरिक समानता को जागृत करना है. जन्म से प्राप्त तथा सामाजिक परिवेश से उत्पन्न पूर्वाग्रहों तथा जटिलताओं को समाप्त करना है।

7. शिक्षा की प्रत्येक अवस्था के लिए अधिगम का न्यूनतम स्तर निर्धारित करना होगा। देश के विभिन्न भागों में रहने वाले व्यक्तियों की संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्थाओं को समझने के लिए पाठ्यक्रम में व्यवस्था करनी होगी सम्पर्क भाषा के विकास के लिए विभिन्न भाषाओं में पुस्तकों के अनुवाद करने होंगे तथा बहुभाषी शब्द देने की रचना करनी होगी। नई पीढ़ी को अपने ढंग से अपने प्रतिबोध तथा प्रतिभा से भारत से भारत की पुनःखोज करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा।

8. उच्च शिक्षा में सामान्य रूप से तथा तकनीकी शिक्षा में विशेष रूप से अन्तक्षेत्रीय गतिशीलता को विकसित करती है। वांछित योग्यता के द्वारा ऐसे अवसर देने होंगे। विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं अवमूल्यन हुआ है।

9. अनुसंधान तथा विकास, विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा जाल बिछाना होगा कि विभिन्न स्थानों के स्रोतों का एकत्रीकरण राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं में भाग लेने हेतु किया जाए ।

10. राष्ट्र को सम्पूर्ण रूप से शैक्षिक रूपान्तरण के सभी कार्यक्रमों को असमानताओं को कम करते हुए प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिक, प्रौढ़ साक्षरता, वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकी शिक्षा का दायित्व वहन करना होगा।

11. शैक्षिक प्रक्रिया का चिरसंचित उद्देश्य जीवन पर्यन्त शिक्षा है। सार्वभौम साक्षरता की यह अपेक्षा है। युवकों, गृहणियों, कृषकों, श्रमिकों तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोगों को अपनी रूचि की शिक्षा, जो समय के साथ विकसित हो दी जायेगी। मुक्त तथा अधिगम इस दिशा में भावी प्रयास है।

12. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को आकार देने तथा सशक्त बनाने में सहयोग देने वाली संस्थायें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा - परिषद, अखिल भारतीय कृषि शिक्षा परिषद् तथा अखिल भारतीय चिकित्सा परिषद हैं। इन संस्थाओं के मध्य सम्मिलित योजना बनायी जायेगी जिससे कार्यात्मक सम्पर्क के द्वारा कार्यक्रमों का क्रियान्वयन किया जाये। यह कार्य एन. सी.ई.आर.टी. इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन प्लानिंग एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन, इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशनल टेक्नोलॉजी के सहयोग से होगा। शिक्षा नीति के क्रियान्यवन में इनको सम्मिलित किया जायेगा।

समय के परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षण पद्धति में भी परिवर्तन आया, लेकिन शिक्षा के उद्देश्य में विशेष परिवर्तन नहीं आया, किन्तु अंग्रेजों के शासनकाल के आरम्भ में ही लॉड मैकाले नाम का कानून मन्त्री इंग्लैण्ड से आया। यहाँ आकर उसने सबसे पहले यहाँ की शिक्षा व्यवस्था की जानकारी ली। उसे पता चला कि यहाँ तो ब्राह्मण लोग विद्यार्थी को निःशुल्क शिक्षा देते हैं उनकी पाठशाला में लड़के तथा लड़कियाँ दोनों ही साथ बैठकर पढ़ते थे। हाँ, यह जरूर है लड़कियों की संख्या कम होती थी। लड़कियों की शिक्षा पर मुसलमानों के आने के बाद ही कुठाराघात हुआ था। अकेले बंगाल में ही 40 हजार से ज्यादा पाठशालाएँ थीं, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे भारत में शिक्षा की क्या स्थिति थी।  लॉर्ड मैकाले ने एक कुटिल योजना बनाई अपने साथियों के बीच यह उद्घोषणा की कि यदि हमें भारत को पूरी तरह अपने शिकंजे में कसना है तो सबसे पहले इनकी शिक्षा व्यवस्था को भंग करना होगा। उसकी कुटिल नीति का प्रारम्भ हो गया। जबरदस्ती पाठशालाएँ बन्द करवाई. प्रतिष्ठित परिवार के बच्चे जिन अच्छे विद्यालयों में पढ़ते थे उनके लिए अंग्रेजी ढंग की शिक्षा की व्यवस्था की गई और उनके लिए अलग विद्यालय भी खोले गए। इस प्रकार भारत के प्रतिष्ठित वर्ग के बच्चे अलग विद्यालयों में पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त करने लगे। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा घोषित किया और उसने जैसा कि पहले कहा गया है। खुले शब्दों में यह कहा कि मेरा उद्देश्य इस शिक्षा से केवल यही है कि भारत में क्लर्क हो और भारत बहुत दिनों तक गुलाम बना रहे। इसलिए अंग्रेजों के शासनकाल में शिक्षा के नाम पर सबसे अधिक बल अंग्रेजी भाषा एवं गणित पर दिया जाता था। क्लर्क बनने के लिए गणित तथा अंग्रेजी पर अधिकार आवश्यक था। लॉर्ड मैकाले के बनाए नियमों ने अंग्रेजों के शासन काल में केवल बाबू ही उत्पन्न किए। ऐसी शिक्षा से इन बाबूओं का मस्तिष्क इतना संकुचित हो गया कि वे शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी ही समझने लगे। जिसके मुँह से सुनो, यही बात कि पढ़-लिखकर नौकरी करनी है। प्राचीन भारत की शिक्षा का उद्देश्य तो कहीं गम ही हो गया था । शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य तो यही है कि मनुष्य में मनुष्यता का विकास हो शिक्षार्थी आत्मनिर्भर बने, उसके चरित्र का निर्माण हो और अन्ततः जीवन यात्रा पूरी करके वह मोक्ष को प्राप्त करे, लेकिन वर्तमान शिक्षा प्रणाली से इनमें से एक भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। शिक्षा केवल उदरपूर्ति एवं धनार्जन का साधन रह गई है। यही कारण है कि विद्यार्थियों का दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन हो रहा है। आज गुरुजनों का आदर करना तो बहुत ही दकियानूसी बात हो गई है। विद्यालय में शिक्षक भी बच्चों को सदाचारी बनने की प्रेरणा नहीं देते हैं। कई सौ वर्ष के प्रयासों के बाद आज शिक्षक भी वैसे ही हैं जैसे अंग्रेज चाहते थे। अंग्रेजों का राज्य समाप्त हो गया, लेकिन वे देश की ही नहीं शिक्षा की भी जड़ें खोखली करके चले गए।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद में भी शिक्षा पद्धति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। आज की शिक्षा पद्धति न तो अच्छे नागरिकों का निर्माण कर सकती है न अच्छे सेनानी उत्पन्न कर सकती है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से आज की शिक्षा सर्वथा विफल हैभारत सरकार योजनाएँ बहुत बनाती है । ढेर सारी कमेटी भी बनाती है और समय पर सरकार का कोई नेता शिक्षा के सम्बन्ध में ढेर सारी उद्घोषणा करता है लेकिन विडम्बना यही है कि सुधार कहीं दिखाई नहीं देता।

सन् 1948 में श्री बी०जी० खेर की अध्यक्षता में बेसिक शिक्षा समिति का निर्माण हुआ, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण भारत में बेसिक शिक्षा का व्यापक प्रचार था। इस योजना के व्यय का भार 70 प्रतिशत प्रत्येक राज्य सरकार को वहन करना था और 30 प्रतिशत संघीय सरकार कोसन् 1948 एवं 49 में दिल्ली राज्य में पंचवर्षीय बेसिक योजना का कार्य आरम्भ हुआ । इस योजना के अन्तर्गत 150 प्रारम्भिक स्कूल खुले, जिनमें निम्न कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थी को शिक्षा दी जाती थी। यह योजना बनाई गई कि हर एक मील की सीमा में एक प्राइमरी स्कूल हो यह योजना भी पूरी की गईसर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में नवम्बर 1948 में एक आयोग की नियुक्ति की गई। अगस्त 1949 में इसने अपनी रिपोर्ट पेश की। इसके अनुसार विश्वविद्यालय पूर्व 12 वर्ष का अध्ययन, उच्च शिक्षा के तीन मुख्य उद्देश्य होने चाहिए सामान्य शिक्षा, संस्कारी शिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा । योजना तो बहुत अच्छी बनायी गई और सोचा भी यह गया कि पिछड़े हुए भारतीय विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास हो, किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हो पायाथोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ ज्यों की त्यों शिक्षा प्रणाली आज भी चल रही है। वस्तुतः जिस समय देश को आजादी मिली थी उसी समय शिक्षा की ओर हमारे प्रमुख नेताओं का विशेष ध्यान नहीं था । उस समय तो सारा का सारा ध्यान वैज्ञानिक प्रयोग की ओर था। वैज्ञानिक प्रगति के लिए अंग्रेजी भाषा का सहारा आवश्यक था, जिसका नतीजा वही हुआ जो हम आज देख रहे हैं। हर गली मुहल्ले में बरसात के मेंढक की तरह टर्राते हुए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे हैं, जहाँ नन्हें बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाने लगी। अब सबसे बड़ी समस्या भाषा की है ।

आज कहने को तो शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सारे परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन मूल रूप से जो परिवर्तन होना चाहिए उसका कहीं जिक्र भी नहीं होता। ढेर सारे सेमिनार होते हैं, कॉन्फ्रेन्स होती हैं, बड़े-बड़े विद्वानों के भाषण होते हैं, लेकिन नन्हें-नन्हें फूल से बच्चे आवाक् सब कुछ देखते रहते हैं, विद्यालय में जब उनकी शिक्षिका अंग्रेजी में बोलती है तो वे बेचारे करूणा और दया के पात्र होते हैं, उनके चेहरे पर असमर्थता झलकती है और बचपन से ही उनके आत्मविश्वास का हनन होता है। आज की शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष है बच्चों के मनोविज्ञान की उपेक्षा। पहले से ही कहा जाता रहा है कि लालयेत पंचवर्षाणि अर्थात् पाँच वर्ष तक के बच्चों को लाड़ प्यार करो, परन्तु आज तीन वर्ष के बच्चे को भी किसी अंग्रेजी भाषी विद्यालय में भेज दिया जाता है। सोचने की बात है कि जो बच्चा अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से नहीं कर सकता वह कक्षा में Twinkle Twinkle little star कैसे पढ सकता है। वह गिनती कैसे गिन सकता है। ऐसी स्थिति में मन्द बुद्धि के बालकों के मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ना लाजिमी है। इसके अतिरिक्त बच्चे का वजन सत्रह किलोग्राम लेकिन उसके बस्ते का बोझ आठ किलोग्राम क्या यही शिक्षा है? जो बच्चा एक जग पानी नहीं उठा सकता उससे इतना वजन उठवाया जा रहा है, है न हास्यास्पद शिक्षा व्यवस्था! इन सबसे बड़ा नुकसान आज की शिक्षा प्रणाली में यही हो रहा है कि बच्चों की सृजनात्मक क्षमता का दमन हो जाता है और उनका आत्मविश्वास समाप्त होता हैजिसका परिणाम होता बच्चों में बढ़ती अनुशासनहीनता। हर बच्चा बेचारा अंकों के कटघरे में खड़ा रहता है। कभी उसे दोषी करार दिया जाता है तो कभी उसे मुक्ति मिल जाती है। उस बच्चे को तो यह भी पता नहीं होता कि आखिर उससे भूल क्या हुई। माता-पिता सीमा से अधिक महत्वाकांक्षी हो गए हैं। होड़ लगी हुई है, जिसमें नन्हें छोटे बच्चे गिरते पड़ते किसी तरह अपना शिक्षाकाल पूरा करते हैं। बहुत कम विद्यार्थी अपने श्रम एवं माता पिता के प्रयास से आत्मनिर्भर होते हैं। अधिकांश शिक्षित युवा बेकार रहते हैं। इस शिक्षा प्रणाली से यह देश कैसे पूर्णतः आत्मनिर्भर हो पायेगा। यही गम्भीरता से विचार करने की बात है। इसके लिए सरकार को अपनी शिक्षा नीति पर पुनर्विचार करना होगा। शिक्षा ऐसी देनी होगी, जो व्यक्तित्व विकास, योग्यता वृद्धि के साथ-साथ रोजगारोन्मुख हो तथा इसकी शुरूआत निचले स्तर से ही करनी होगी।

मूल्य शिक्षा हमारे अन्दर नैतिक मूल्यों का विकास करती है। ये सीखने के साथ-साथ हमारे व्यक्तित्व में भी विकास करती है। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक लॉरेंस कोहलबर्ग का मानना था कि बच्चों को एक ऐसे माहौल में रहने की जरूरत है जो दिन-प्रतिदिन के संघर्षों की खुली और सार्वजनिक चर्चा के लिए अनुमति देता है। मूल्य शिक्षा का महत्व Importance of Value Education हमारे पर्सनालिटी डेवलपमेंट में सहायक है तथा विद्यार्थी के गुणों में विकास करता है। यह हमारे जीवन में अनुशासन के महत्व को भी बताता है। इतना ही नहीं यह हमारे अन्दर समय के महत्व को समझने की क्षमता को विकसित करता है। खेल के महत्व को समझना भी मूल्य शिक्षा को समझने तथा रोचक ढंग से व्यक्तित्व के विकास में प्रमुख भूमिका निभाता है।

 


डॉ. अशोक गिरि

बी-36, बी.ई.एल. कॉलोनी,

कोटद्वार (उत्तराखण्ड)

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